जब समाज पुरुष होने के आदर्श गुणों को निर्धारित करता है, तो हम दशकों से लगातार एक ही रूढ़िवादिता देखते आ रहे हैं। लंबा, एथलेटिक और मेहनती। घर का मुखिया और परिवार के लिए धन का प्राथमिक स्रोत। पुरुषों से सख्त और दृढ़ रहने की उम्मीद की जाती है पुरुषों को रोने की अनुमति नहीं है। “असली” पुरुषों से स्वतंत्रऔर स्थिर होने की उम्मीद की जाती है।
पुरुषों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी कमज़ोरियों को उजागर न करें या यहाँ तक कि उन्हें अपनी कमज़ोरियाँ भी न बताएं। समाज में पुरुषों से जुड़े जो पारंपरिक मानदंड स्थापित हैं, वे न केवल उनके भावनात्मक विकास को सीमित करते हैं बल्कि उन्हें मानसिक समस्याओं से जूझते समय सहायता लेने से भी रोकते हैं। इस लेख में हम पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले सामाजिक दबावों का विश्लेषण करेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि यह ‘साइलेंट स्ट्रगल’ समाज के हर हिस्से को कैसे प्रभावित करता है।
बचपन से शुरू होने वाली घुटन
“लड़के रोते नहीं हैं”, “तुम मर्द हो, मजबूत बनो”, “कमजोरी मत दिखाओ” ये वाक्य बचपन से ही लड़कों के मन में यह बैठा देते हैं कि भावनाएं दिखाना कमजोरी है। इस सोच का परिणाम यह होता है कि बड़े होते-होते अधिकांश पुरुषों के लिए अपनी भावनाओं को शब्द देना या तकलीफ को स्वीकार करना असामान्य हो जाता है। इस सामाजिक प्रशिक्षण के कारण पुरुषों में भावनात्मक असंतुलन, क्रोध, अकेलापन, आत्म-संदेह और आत्मघाती विचार उत्पन्न होते हैं – लेकिन वे इन्हें ज़ाहिर नहीं कर पाते। धीरे-धीरे ये समस्याएँ मानसिक बीमारी का रूप ले लेती हैं।
पुरुषत्व बनाम मानसिक स्वास्थ्य
सामाजिक मान्यताओं ने पुरुषत्व को ऐसे फ्रेम में बाँध दिया है जहाँ सहनशीलता, नियंत्रण और ताकत के अलावा और कुछ नहीं दिखना चाहिए। यदि कोई पुरुष अवसाद से जूझ रहा हो और वह थैरेपी की बात करे, तो लोग अक्सर कहते हैं:
- “मर्द होकर भी इतना परेशान क्यों?”
- “ये सब तो लड़कियाँ करती हैं, तुम क्यों चिंता कर रहे हो?”
इस तरह की प्रतिक्रियाएँ पुरुषों को और अधिक आंतरिक रूप से अकेला और असहाय बना देती हैं।
अपेक्षाओं का भारः
सामाजिक अपेक्षाएं पुरुषों को कैसे नुकसान पहुंचाती हैं | उम्मीदों का बोझ तब शुरू होता है जब लड़का बड़ा होने लगता है, उस समय उसे एहसास होता है कि इस समाज में “एक आदमी होना” क्या है। यह बोझ बहुत बड़ा है, और उसे अपनी मृत्यु तक इसे ढोना चाहिए। परिवार, दोस्त और समाज उससे उम्मीद करने लगते हैं कि वह सही हो, दृढ़ हो, मजबूत हो, शक्तिशाली हो और उनकी सभी समस्याओं का समाधान जानता हो, सफल हो, विनम्र हो और उन सभी की मदद करने वाला हो।
रिश्तों पर असरः
पुरुषों की भावनात्मक चुप्पी उनके पारिवारिक और रोमांटिक रिश्तों पर भी असर डालती है। जब वे अपने मन की बात साझा नहीं कर पातें, तो वह तनाव गुस्से, चिड़चिड़ेपन या रिश्तों से दूरी के रूप में सामने आता है। इससे उनके पार्टनर या परिवार के सदस्यों के साथ मतभेद बढ़ सकते हैं। कई बार यह दूरी रिश्तों में टूटन का कारण भी बनती है।
कामकाज का तनाव और प्रदर्शनः
वर्कप्लेस पर प्रदर्शन, पदोन्नति और आर्थिक सफलता की दौड़ में पुरुषों को अपनी मानसिक थकावट को नजरअंदाज करना पड़ता है। बर्नआउट, प्रदर्शन चिंता, और कार्य-जीवन असंतुलन जैसी समस्याएँ उन्हें घेर लेती हैं। लेकिन वे इस बारे में खुलकर बात नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उनकी “मर्दानगी” को छोटा कर देगा।
सहायता लेने में झिझक:-
भारत में थैरेपी और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अब भी गहरी भ्रांतियाँ हैं। पुरुषों के लिए यह झिझक और भी अधिक है। उन्हें डर होता है कि अगर उन्होंने मानसिक समस्या स्वीकार की, तो वे “कमज़ोर”, “पागल” या “असफल” माने जाएंगे। इसी कारण वे डॉक्टर या काउंसलर के पास जाने से बचते हैं, जिससे स्थिति और बिगड़ जाती है।
मानसिक स्वास्थ्य पर आंकड़ों की दृष्टिः
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, भारत में आत्महत्या करने वालों में लगभग 70% पुरुष होते हैं। यह आंकड़ा इस बात का संकेत है कि पुरुष अपनी मानसिक पीड़ा को व्यक्त नहीं कर पाते और जब वह असहनीय हो जाती है, तो वे चरम कदम उठा लेते हैं। WHO की एक रिपोर्ट के अनुसार, पुरुषों में डिप्रेशन और मादक द्रव्यों का सेवन की दरें महिलाओं की तुलना में तेजी से बढ़ रही हैं, लेकिन वे थैरेपी जैसी सेवाओं का सहारा लेने से हिचकते हैं।
पुरुष मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्या का छिपा संघर्षः
अपनी असुरक्षाओं, भावनाओं, चिंताओं और भावनाओं के बारे में बात करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, खासकर इस रूढ़िवादी समाज में पुरुषों के लिए। वे अक्सर अपनी समस्याओं को आवाज़ देने में असमर्थ होते हैं क्योंकि समाज उनसे दृढ़ और मजबूत होने की अपेक्षा करता है। पुरुषों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को इतना कलंक क्यों माना जाता है? यह दमन अकेलेपन और अलगाव की भावनाओं का कारण बन सकता है। नतीजतन, केवल 40% पुरुष ही डॉक्टर के पास जाते हैं जब उन्हें गंभीर चिकित्सा स्थिति होने का डर होता है।
वे डॉक्टरों के साथ पूरी तरह से ईमानदार नहीं होते हैं और कभी भी अपने स्वास्थ्य के बारे में खुलकर बात नहीं करते हैं। समाज में पुरुषों की आत्महत्या की दर बहुत अधिक है। पुरुषों की आत्महत्या की दर महिलाओं की तुलना में 4 गुना अधिक है। केवल 10% पुरुषों ने अपने मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में पेशेवरों से बात की और अपनी चिंता, अवसाद और असुरक्षा पर चर्चा की। पुरुष अपने भीतर की उदासी को शांत चेहरों के पीछे छिपाकर चुपचाप पीड़ित होते हैं।
समाधान क्या हो सकते हैं?
- शिक्षा और जागरूकताः स्कूलों और कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य को एक विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए, जहाँ लिंग आधारित भावनात्मक प्रशिक्षण भी दिया जाए।
- जेंडर न्यूट्रल बातचीतः मानसिक स्वास्थ्य को “स्त्री” या “पुरुष” का मामला मानने के बजाय एक मानवीय अनुभव के रूप में देखा जाए।
- थैरेपी को सामान्य बनानाः थैरेपी को ‘नॉर्मल’ बनाना आवश्यक है। इसे उतना ही जरूरी मानना चाहिए जितना कि फिजिकल हेल्थ चेकअप को।
पुरुष मित्रों के बीच खुलापनः दोस्तों के बीच भावनात्मक बातचीत को बढ़ावा देना चाहिए। “मर्द” होने की परिभाषा को फिर से परिभाषित करना होगा – एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी भावनाओं को स्वीकार करता है और साझा करने से नहीं डरता।
निष्कर्ष
हमारे समाज में पुरुषों से अक्सर यह अपेक्षा की जाती है कि वे मजबूत, निडर और भावनात्मक रूप से स्थिर रहें। “लड़कों को रोना नहीं चाहिए” जैसी मान्यताएं पुरुषों को अपनी भावनाओं को दबाने के लिए मजबूर करती हैं। यह दबाव उन्हें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को स्वीकारने और सहायता लेने से रोकता है। अवसाद, चिंता और आत्महत्या की बढ़ती दरें इस साइलेंट स्ट्रगल की गंभीरता को दर्शाती हैं।
पुरुषों की भावनात्मक ज़रूरतों को नकारना न केवल उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि उनके रिश्तों और जीवन की गुणवत्ता पर भी असर डालता है। समाज को चाहिए कि वह लिंग-आधारित पूर्वाग्रहों को तोड़े और पुरुषों को खुलकर अपनी भावनाएं व्यक्त करने का अवसर दे। मानसिक स्वास्थ्य को लिंग-निरपेक्ष विषय मानकर ही हम एक सहानुभूतिपूर्ण और समावेशी समाज की ओर बढ़ सकते हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नः-
प्रश्नः पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य पर सामाजिक दबाव क्या होता है?
उत्तरः यह वह दबाव है जिसमें पुरुषों से भावनात्मक रूप से मजबूत, आत्मनिर्भर और कभी न रोने की अपेक्षा की जाती है, जिससे वे अपने मानसिक संघर्षों को छिपाते हैं।
प्रश्नः पुरुष अपने मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को क्यों नहीं बताते?
उत्तरः समाज उन्हें “कमजोर” या “असली मर्द नहीं” मानता है, इसलिए वे शर्म, डर या सामाजिक ठुकराव के कारण चुप रहते हैं।
प्रश्नः इस दबाव का पुरुषों की मानसिक सेहत पर क्या असर पड़ता है?
उत्तरः इससे अवसाद, चिंता, गुस्सा, आत्महत्या की प्रवृत्ति और रिश्तों में दूरी जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
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